प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी |
चर्चा में क्यों :
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) और ‘समाजवादी’ (Socialist) शब्दों को शामिल करने को बरकरार रखा, उनकी वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया और प्रस्तावना में संशोधन करने के लिए संसद के अधिकार की पुष्टि की।
UPSC पाठ्यक्रम: प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राजनीति एवं शासन-संविधान, राजनीतिक व्यवस्था, पंचायती राज, सार्वजनिक नीति, अधिकार मुद्दे, आदि। मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन II: भारतीय संविधान-ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएं, संशोधन, महत्वपूर्ण प्रावधान और मूल संरचना। |
डॉ. बलराम सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
याचिकाकर्ताओं का तर्क: याचिकाकर्ताओं ने 42वें संशोधन (1976) की वैधता पर सवाल उठाया,जिसमें प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे।
उन्होंने तर्क दिया कि इसे इंदिरा गांधी सरकार के तहत आपातकाल के दौरान पेश किया गया था, जिससे इसकी वैधता पर संदेह पैदा होता है।
सर्वोच्च न्यायालय का अवलोकन:
न्यायालय ने कहा कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा अधिनियमित 44वें संशोधन अधिनियम (1978) ने व्यापक संसदीय विचार-विमर्श के बाद इन शब्दों को बरकरार रखा।
प्रस्तावना में संशोधन करने की संसद की शक्ति:
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति है।
पूर्वव्यापी संशोधनों के खिलाफ तर्क को खारिज कर दिया गया,जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि संविधान में संशोधन करने के लिए संसद का संवैधानिक अधिकार समग्र और अंतिम है।
सर्वोच्च न्यायालय का रुख:
पूर्वव्यापी प्रभाव के खिलाफ तर्क को स्वीकार करने से सभी संवैधानिक संशोधन कमजोर हो जाएंगे, भले ही संसद को संविधान में संशोधन करने का निर्विवाद अधिकार है।
संविधान एक ‘जीवित दस्तावेज’ के रूप में :
न्यायालय ने टिप्पणी की कि संविधान एक ‘जीवित दस्तावेज’ है जो सामाजिक आवश्यकताओं के साथ विकसित होता है।
हालांकि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान सभा के प्रारंभिक मसौदे में नहीं थे, लेकिन उनका समावेश भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक विकास को दर्शाता है।
याचिका दायर करने में देरी :
न्यायालय ने संशोधन को चुनौती देने में देरी की आलोचना की, यह देखते हुए कि 1976 में संशोधन के 44 साल बाद 2020 में याचिकाएँ दायर की गईं।
भारतीय समाज में दशकों से इन शब्दों की व्यापक स्वीकृति ने चुनौती की वैधता को कमज़ोर कर दिया।
याचिकाकर्ताओं के तर्क को खारिज करना :
न्यायालय ने कहा कि पूर्वव्यापी संशोधनों के खिलाफ तर्क को स्वीकार करने से सभी संवैधानिक संशोधन कमजोर हो जाएंगे, भले ही संसद को संविधान में संशोधन करने का निर्विवाद अधिकार है।
यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है, जो धर्म के आधार पर नागरिकों के विरुद्ध भेदभाव पर रोक लगाता है तथा कानूनों के समान संरक्षण और सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर की गारंटी देता है।
भारत के संविधान की प्रस्तावना क्या है?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक परिचयात्मक कथन है जो संविधान के दर्शन, सिद्धांतों और उद्देश्यों को रेखांकित करता है।
यह राष्ट्र के मूल मूल्यों और आकांक्षाओं की घोषणा करता है, इस बात पर बल देता है कि “हम, भारत के लोग” संवैधानिक अधिकार के अंतिम स्रोत हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक मामलों (जैसे,केशवानंद भारती केस,1973) में प्रस्तावना को संविधान के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता दी।
पृष्ठभूमि और गठन :
प्रस्तावना के मूलभूत विचार 1947 में जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव से प्राप्त हुए थे।
प्रस्तावना के मसौदे पर संविधान सभा में महत्वपूर्ण बहस और चर्चा हुई।
प्रस्तावना का अंतिम संस्करण 26 नवंबर 1949 को संविधान के साथ अपनाया गया था।
संविधान में प्रस्तावना कहां से ली गई?
भारतीय संविधान में प्रस्तावना का विचार अमेरिका के संविधान से लिया गया है.
भारतीय संविधान में प्रस्तावना की भाषा को ऑस्ट्रेलिया संविधान से लिया गया है
संविधान का स्रोत:-
वाक्यांश “हम भारत के लोग” इस बात पर बल देते हैं कि संविधान भारतीय लोगों द्वारा और उनके लिए बनाया गया है और उन्हें किसी बाहरी शक्ति द्वारा नहीं दिया गया है।
यह रूसो द्वारा निर्धारित लोकप्रिय संप्रभुता की अवधारणा पर भी बल देता है: सभी शक्ति लोगों से निकलती है और राजनीतिक व्यवस्था लोगों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होगी।
प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द
‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था, यह एक ऐतिहासिक संशोधन था जिसे व्यापक बदलावों के कारण “लघु संविधान” के रूप में संदर्भित किया जाता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
42वें संशोधन अधिनियम, 1976 ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े।
इस संशोधन ने आर्थिक न्याय और धार्मिक सद्भाव प्राप्त करने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता पर प्रकाश डाला।
क्यों पेश किया गया?
आर्थिक समानता और धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों को मजबूत करते हुए, प्रस्तावना को वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का दर्पण बनाना।
समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ
पश्चिमी अवधारणा:
पश्चिमी संदर्भ में समाजवाद का तात्पर्य आर्थिक समानता प्राप्त करने के लिए उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व से है।
यह आर्थिक असमानताओं को कम के लिए संसाधनों और उद्योगों पर राज्य के नियंत्रण पर बल देता है।
भारतीय अवधारणा:
भारत ने लोकतांत्रिक समाजवाद को अपनाया, जो मिश्रित अर्थव्यवस्था को बनाए रखते हुए आर्थिक समानता को बढ़ावा देता है – जिसमें सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र शामिल हैं।
यह लोकतांत्रिक आदर्शों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए संसाधनों का उचित वितरण सुनिश्चित करता है।
उदाहरण: भूमि सुधार, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम और कल्याणकारी योजनाएँ जैसी नीतियाँ भारतीय समाजवाद को दर्शाती हैं।
भारतीय संविधान की समाजवादी प्रकृति :
संविधान के भाग IV में निहित, DPSP का उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक न्याय स्थापित करना और असमानताओं को कम करना है।
ये सिद्धांत राज्य के लिए सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक हित की नीतियों को लागू करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1955 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें समाजवाद को राष्ट्रीय नीति के रूप में समर्थन दिया गया, जिससे समानता और आर्थिक न्याय के लिए राज्य की प्रतिबद्धता को बल मिला।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय :
मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980):
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने “समाजवाद” को मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन के माध्यम से नागरिकों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने के प्रयास के रूप में समझाया।
न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समाजवाद का अर्थ निजी संपत्ति का उन्मूलन नहीं है, बल्कि समाज के सामूहिक कल्याण के लिए उसका विनियमन है।
एयर इंडिया वैधानिक निगम बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन (1997):
निर्णय ने समाजवादी राज्य के दृष्टिकोण को वास्तविकता में लाने के लिए संपत्ति संबंध, कराधान, सार्वजनिक व्यय, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं जैसे क्षेत्रों में सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
इसने समर्थन किया कि ये सुधार संविधान में उल्लिखित सामाजिक-आर्थिक दायित्वों को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
शासन में समाजवाद की प्रासंगिकता:
आर्थिक समानता: धन और संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना।
कल्याणकारी राज्य: ऐसी नीतियों के प्रति प्रतिबद्धता जो जन कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को प्राथमिकता देती हैं।
लोकतांत्रिक समाजवाद: व्यक्तिगत अधिकारों और समाज के सामूहिक कल्याण के बीच संतुलन।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता: मुख्य अवधारणाएँ और निर्णय
“धर्मनिरपेक्ष” शब्द का अर्थ:”धर्मनिरपेक्ष” शब्द लैटिन शब्द “सेकुलम” से लिया गया है, जिसका अर्थ है “विश्व” या “युग”।
दूसरे शब्दों में, “धर्मनिरपेक्ष धार्मिक अथवा पारलौकिक का प्रतिलोम है।” धर्मनिरपेक्ष की प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं
जॉर्ज ऑस्लर के शब्दों में, “धर्मनिरपेक्ष का अर्थ इस विश्व या वर्तमान जीवन से सम्बन्धित है, जो धार्मिक या द्वैतवादी विचारों से बंधा हुआ न हो।”
एच०बी० कामथ के अनुसार, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो ईश्वर-रहित है, न ही यह अधर्मी राज्य है,और न ही धर्मविरोधी। धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का अर्थ यह है कि इसमें ईश्वर पर आधारित धर्म के अस्तित्व को नहीं माना जाता।”
डोनाल्ड स्मिथ के शब्दों में,“धर्मनिरपेक्ष राज्य वह है, जिसके अंतर्गत धर्म-विषयक व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है; जो व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय धर्म को बीच में नहीं लाता ; जो संवैधानिक रूप से किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है और न किसी धर्म की उन्नति का प्रयास करता है तथा न ही किसी धर्म के मामले में हस्तक्षेप करता है।”
पश्चिमी अवधारणा:
पश्चिमी अर्थ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है धर्म और राज्य का सख्त अलगाव।
राज्य तटस्थ रहता है और किसी भी धर्म का समर्थन या हस्तक्षेप नहीं करता है।
भारतीय अवधारणा:
भारत की धर्मनिरपेक्षता अद्वितीय है और सभी धर्मों के लिए धार्मिक सद्भाव और समान सम्मान पर बल देती है।
भारतीय राज्य किसी भी धर्म को अपने आधिकारिक धर्म के रूप में नहीं अपनाता है, लेकिन धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने, अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करने और अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय रूप से संलग्न है।
उदाहरण: सभी धार्मिक त्योहारों को राष्ट्रीय स्तर पर मनाना तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कानून बनाना।
सुप्रीम कोर्ट का मुख्य निर्णय
एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994):
सुप्रीम कोर्ट की 9 न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय।
न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की एक बुनियादी विशेषता घोषित किया, जिसे अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित नहीं किया जा सकता।
इसने इस बात पर बल दिया कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ धर्म में हस्तक्षेप न करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी धर्म राज्य की नीतियों पर हावी न हो।
मामले में मुख्य टिप्पणियाँ:
राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धार्मिक प्रथाएँ सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित न करें या दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन न करें।
निर्णय ने इस विचार को पुष्ट किया कि अगर सरकारें धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विरुद्ध काम करती हैं तो उन्हें बर्खास्त किया जा सकता है।
धर्मनिरपेक्षता को प्रतिबिंबित करने वाले संवैधानिक प्रावधान
मौलिक अधिकार:
अनुच्छेद 14: धर्म के बावजूद कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है।
अनुच्छेद 15: धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकता है।
अनुच्छेद 25-28: धार्मिक मामलों के प्रबंधन और राज्य द्वारा वित्तपोषित संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को रोकने के अधिकार सहित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं।
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (DPSP):
अनुच्छेद 44 के तहत एक समान नागरिक संहिता को बढ़ावा देना, जो धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को और अधिक अभिव्यक्त करता है।
शासन में धर्मनिरपेक्षता की प्रासंगिकता :
धर्मनिरपेक्षता भारत के बहु-धार्मिक समाज में सद्भाव को बढ़ावा देती है।
यह सुनिश्चित करता है कि अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यक समुदाय का वर्चस्व न हो।
व्यक्तिगत अधिकारों को सामूहिक सामाजिक और धार्मिक हितों के बीच संतुलन बनाता है।
भारतीय संविधान में प्रस्तावना की स्थिति :
बेरुबारी यूनियन केस (1960) :
यह मामला संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत बेरुबारी यूनियन से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते के कार्यान्वयन से संबंधित था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ:
प्रस्तावना का उपयोग संविधान के महान उद्देश्यों के आलोक में संविधान की व्याख्या करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन यह संविधान का हिस्सा नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना एक परिचयात्मक कथन है और संवैधानिक प्रावधानों के तहत इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है।
केशवानंद भारती केस (1973) :
संवैधानिक संशोधनों के दायरे और मूल संरचना सिद्धांत के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का एक ऐतिहासिक निर्णय।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ:
प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है और संविधान के उद्देश्य और लक्ष्यों को समझने में समान महत्व रखती है।
प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन इसकी मूल विशेषताओं और मूल सिद्धांतों को बदला नहीं जा सकता है।
टिप्पणियों में मुख्य अंतर
बेरुबारी केस (1960):
प्रस्तावना को संविधान के बाहर माना गया और इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता।
केशवानंद भारती केस (1973):
प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न अंग और संशोधन योग्य माना गया, बशर्ते कि इसका मूल ढांचा बरकरार रहे।
स्रोत - इंडियन एक्सप्रेस