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सिंधु जल संधि रद्द होने के प्रभाव

सिंधु जल संधि रद्द होने के प्रभाव: भारत और पाकिस्तान पर विश्लेषण

सिंधु नदी प्रणाली पर जल-बंटवारे को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 से एक अहम समझौता, सिंधु जल संधि, लागू है। यह संधि दशकों से दो युद्धों के बावजूद चलती रही है और दक्षिण एशिया में जल सहयोग की मिसाल मानी जाती रही है। किंतु हाल के वर्षों में बदले भू-राजनीतिक हालात, आतंकवाद की घटनाएँ और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव इस संधि को विवाद के केंद्र में ले आए हैं। 

सिंधु जल संधि का संक्षिप्त परिचय

  • सिंधु जल संधि 19 सितंबर 1960 को विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुई थी। संधि के तहत छह नदियों को पूर्वी एवं पश्चिमी दो समूहों में बांटा गया: तीन पूर्वी नदियों – रवि, ब्यास, सतलुज – का पूरा नियंत्रण भारत को मिला, जबकि तीन पश्चिमी नदियों – सिंधु (इंडस), झेलम, चिनाब – का अधिकांश जल प्रवाह पाकिस्तान के लिए आरक्षित हुआ। 
  • सरल शब्दों में, संधि भारत को कुल जल का लगभग 20% उपयोग का अधिकार देती है और शेष 80% पाकिस्तान को प्राप्त होता है। भारत को पश्चिमी नदियों पर सीमित सिंचाई एवं असीमित गैर-खपत (non-consumptive) उपयोग का हक है, जिसमें रन-ऑफ़-रिवर (प्रवाह आधारित) पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण शामिल है । 
  • रन-ऑफ़-रिवर का अर्थ है कि बाँध या परियोजना बिना बड़े जलाशय के बनेगी और नदी के बहाव में कोई बड़ा या दीर्घकालिक अवरोध नहीं होगा। संधि में विस्तृत तकनीकी मानक निर्धारित हैं ताकि भारत की ऐसी परियोजनाओं से पाकिस्तान की डाउनस्ट्रीम जल उपलब्धता प्रभावित न हो। 
  • संधि में एक स्थायी सिंधु आयोग और विवाद निवारण की बहु-स्तरीय प्रक्रिया (द्विपक्षीय वार्ता, तटस्थ विशेषज्ञ, मध्यस्थ अदालत) का प्रावधान है, लेकिन किसी एक पक्ष द्वारा संधि को एकतरफा निलंबित या समाप्त करने का प्रावधान नहीं है। फिर भी, बदलते समय के साथ संधि की प्रासंगिकता पर सवाल उठे हैं – खासकर जनसंख्या वृद्धि, जलवायु परिवर्तन और नए इंफ़्रास्ट्रक्चर की चुनौतियों के संदर्भ में।

हाल के घटनाक्रम

पिछले कुछ वर्षों में सिंधु जल संधि के संबंध में कई अहम घटनाक्रम हुए हैं, जिनसे संधि पर पुनर्विचार और तनाव की स्थिति बनी। नीचे मुख्य बिंदु व सरकारी बयान दर्ज हैं:

  • विवाद एवं मध्यस्थता: पाकिस्तान ने भारत की कुछ पनबिजली योजनाओं पर आपत्ति जारी रखी है। विशेषकर किशनगंगा (झेलम की सहायक) और रतले (चिनाब) परियोजनाओं के डिजाइन को लेकर पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की राह पर गया, जबकि भारत का कहना था कि ये परियोजनाएँ संधि के अनुरूप हैं। भारत ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान शिकायत प्रक्रिया को खींच रहा है, जिससे परियोजनाओं में देरी होती है। परिणामस्वरूप, भारत ने संधि में “मौलिक परिस्थितियों में परिवर्तन” का हवाला देते हुए जनवरी 2023 में पाकिस्तान को संधि के प्रावधानों की पुनर्समीक्षा हेतु औपचारिक नोटिस दिया। यह संधि के इतिहास में पहली बार था जब संशोधन का आधिकारिक आग्रह किया गया। तत्पश्चात अगस्त–सितंबर 2024 में भारत ने पुनः द्विपक्षीय बातचीत के जरिए संधि को अद्यतन करने की मांग उठाई, जिसमें जलवायु परिवर्तन, बढ़ती जनसंख्या और पाकिस्तान द्वारा विवाद निवारण तंत्र के दुरुपयोग जैसे मुद्दे शामिल थे। पाकिस्तान ने इन प्रयासों का यह कहते हुए विरोध किया कि संधि में एकतरफा बदलाव मान्य नहीं है और ऐसे मामलों का समाधान स्थायी सिंधु आयोग के माध्यम से होना चाहिए।
  • आतंकवाद और संधि निलंबन (2025): अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में पर्यटकों पर हुए एक भीषण आतंकवादी हमले (जिसमें 25 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई) ने भारत-पाक संबंधों को और बिगाड़ दिया। इस हमले के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान के विरुद्ध कड़े कदमों की घोषणा की। भारत के विदेश मंत्रालय ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान लगातार सीमापार आतंकवाद का समर्थन कर संधि की “शर्तों का उल्लंघन” कर रहा है, और इसके जवाब में सिंधु जल संधि को तत्काल प्रभाव से “स्थगित” (सस्पेंड) करने की घोषणा की गई। विदेश मंत्रालय के अनुसार यह निलंबन तब तक जारी रहेगा जब तक पाकिस्तान अपने आतंकवादी समर्थन को “विश्वसनीय और अपरिवर्तनीय तरीके से” त्याग नहीं देता। यह पहली बार था जब भारत सरकार ने औपचारिक रूप से संधि के अनुपालन को रोका है। भारत का यह कदम दिखाता है कि अब वह पानी को एक राजनीतिक दबाव उपकरण (leverage) के रूप में उपयोग करने को तैयार है।
  • पाकिस्तान की प्रतिक्रिया: पाकिस्तान ने भारत द्वारा संधि को एकतरफा निलंबित करने की कड़ी भर्त्सना की। पाकिस्तान के तत्कालीन नेतृत्व की ओर से जारी बयान में कहा गया कि यदि भारत पाकिस्तान के हिस्से के पानी के बहाव को रोकने या मोड़ने का प्रयास करता है तो इसे “युद्ध की कार्रवाई” माना जाएगा और पूरे बल के साथ जवाब दिया जाएगा। पाकिस्तान ने जोर देकर कहा कि संधि एक बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिसे एकतरफा निलंबित नहीं किया जा सकता, और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की अपील करने के संकेत दिए। स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच पानी का मुद्दा अब न सिर्फ आर्थिक बल्कि रणनीतिक और भावनात्मक सुरक्षा से जुड़ गया है।
  • अन्य प्रासंगिक घटनाएँ: इससे पूर्व भी तनाव के समय संधि पर बयानबाज़ी हुई थी। उड़ी (2016) और पुलवामा (2019) हमलों के बाद भारत ने कहा था कि “खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते”, संकेत देते हुए कि आतंकवाद जारी रहने पर जल-संधि पर पुनर्विचार होगा। इन वर्षों में भारत ने पूर्वी नदियों के अपने हिस्से के जल का पूर्ण उपयोग करने की तरफ़ भी कदम बढ़ाए (जैसे शाहपुरकंडी बांध, उज्ह बहुद्देशीय परियोजना) ताकि पाकिस्तान को अतिरिक्त पानी बहकर न जाए। 2024 में पंजाब में शाहपुरकंडी बांध पूर्ण हुआ जिससे रावी का पानी भारतीय नहरों की ओर मोड़ा गया, और उज्ह बांध की योजना प्रगति पर है। अनुमानों के मुताबिक इन प्रयासों से लगभग 9.3 अरब घनमीटर पानी जो पहले पाकिस्तान चला जाता था, अब भारत में ही रोका जा सकेगा। कुल मिलाकर, हालिया घटनाक्रमों ने सिंधु जल संधि को अभूतपूर्व दबाव में डाल दिया है और इसका भविष्य अनिश्चित कर दिया है।

 

नदियों पर वर्तमान बुनियादी ढाँचा (भारतीय परियोजनाएँ)

सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों (पश्चिमी नदियों) पर भारत द्वारा सीमित जल उपयोग हेतु कई रन-ऑफ़-रिवर जलविद्युत परियोजनाएँ विकसित की गई हैं। संधि की शर्तों के अनुसार इनमें बड़े जलाशय या बाँध नहीं हैं, केवल बिजली उत्पादन हेतु जलधारा का उपयोग कर फिर पानी छोड़ दिया जाता है। इन परियोजनाओं की वर्तमान स्थिति इस प्रकार है:

सिंधु नदी (सिंधु मुख्यधारा) पर भारतीय परियोजनाएँ

  • निमू-बज़गो पावर स्टेशन (लेह, लद्दाख): यह 45 मेगावाट की एक रन-ऑफ़-रिवर परियोजना है जो लद्दाख में सिंधु नदी पर बनी। इसका संचालन 2013 में शुरू हुआ। छोटे बाँध (कैचमेंट) के साथ इससे सिंधु के प्रवाह पर नगण्य असर होता है।
  • चुटक पनबिजली परियोजना (कारगिल): सुरू नदी (सिंधु की एक सहायक नदी) पर 44 मेगावाट की परियोजना, 2013 से चालू। यह भी एक छोटी रन-ऑफ़-रिवर योजना है।
  • (ध्यान दें: मुख्य सिंधु नदी पर भारत द्वारा कोई बड़ा बाँध या जलाशय नहीं बनाया गया है; अधिकांश बड़ी परियोजनाएँ झेलम व चिनाब पर केंद्रित हैं।)

झेलम नदी पर भारतीय परियोजनाएँ 

  • किशनगंगा जलविद्युत परियोजना: यह 330 मेगावाट की क्षमता वाली योजना है जो झेलम की सहायिका किशनगंगा नदी (जिसे पाकिस्तान में नीलम कहा जाता है) पर स्थित है। 2018 में चालू इस परियोजना में नदी के प्रवाह का कुछ हिस्सा मोड़कर बिजली उत्पन्न की जाती है। पाकिस्तान ने इस पर आपत्ति दर्ज की थी, किंतु अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कुछ शर्तों के साथ भारत को इसे संचालित करने की अनुमति दी (उदाहरणतः न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह बनाए रखना)। किशनगंगा परियोजना के चलते पाकिस्तान के mangla (मंगला) बांध को मिलने वाले पानी में कुछ कमी आ सकती है, क्योंकि यह झेलम की एक प्रमुख उपनदी पर बना है।
  • उरी-I एवं उरी-II पावर स्टेशन: झेलम नदी पर बारामूला ज़िले में स्थित दो पनबिजली परियोजनाएँ, क्रमशः ~480 मेगावाट (1997 में शुरू) और ~240 मेगावाट (2013 में शुरू)। ये भी रन-ऑफ़-रिवर प्रकृति की हैं और कश्मीर घाटी की बिजली जरूरतें पूरी करती हैं।
  • तुलबल/वुलर परियोजना (निष्क्रिय): वुलर झील पर नौवहन सुधार हेतु भारत एक बैराज बनाना चाहता था, जिसे पाकिस्तान ने संभावित जलरोध के रूप में देखा। यह योजना कई दशकों से विवादित और स्थगित है।

चिनाब नदी पर भारतीय परियोजनाएँ

  • सलाल बांध: जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर 690 मेगावाट की शुरुआती पनबिजली परियोजना, जिसे 1987 में पूरा किया गया। यह रन-ऑफ़-रिवर योजना है, हालांकि एक मध्यम आकार का जलाशय बनाती है। इसे भारत ने पाकिस्तान की सहमति से निर्माण किया था।
  • बगलिहार जलविद्युत परियोजना: चिनाब पर 900 मेगावाट (दो चरणों में 450-450 मेगावाट) की बड़ी परियोजना, जिसका निर्माण 2008 और 2015 में चरणबद्ध पूरा हुआ। पाकिस्तान ने बगलिहार बांध के डिज़ाइन (फुलाव स्तर, स्पिलवे की ऊँचाई आदि) पर आपत्ति उठाई थी, जिसपर एक तटस्थ विशेषज्ञ ने 2007 में फैसला दिया। विशेषज्ञ ने अधिकतर मामलों में भारत के पक्ष को उचित ठहराया और केवल मामूली डिज़ाइन बदलाव सुझाए। बगलिहार परियोजना में सीमित “पॉन्डेज” (जल-भंडारण) है, जिससे भारत थोड़े समय के लिए पानी रोककर बिजली उत्पन्न कर सकता है।
  • दुलहस्ती पावर स्टेशन: चिनाब के ऊपरी बहाव पर ~390 मेगावाट की परियोजना (हिमाचल-जम्मू सीमा के पास), 2007 से क्रियाशील। रन-ऑफ़-रिवर।
  • रतले जलविद्युत परियोजना: यह 850 मेगावाट क्षमता की प्रस्तावित/निर्माणाधीन योजना है, जो किश्तवाड़ (जम्मू-कश्मीर) में चिनाब नदी पर बन रही है। परियोजना का निर्माण आरंभिक दौर (2013) में अड़चनों का शिकार हुआ, लेकिन हाल ही में इसे दोबारा गति दी गई है। इसके 2026 तक पूर्ण होने का लक्ष्य है। पाकिस्तान ने रतले के डिजाइन (स्पिलवे ऊँचाई, जलाशय क्षमता) पर ऐतराज़ जताया है, क्यूंकि इसे लेकर आशंका है कि इससे चिनाब का प्रवाह घट सकता है। भारत का रुख है कि रतले संधि के अनुरूप है और पाकिस्तान बेवजह विवाद लटका रहा है।
  • पाकल दुल और अन्य योजनाएँ: चिनाब की मरुसूदर उपनदी पर 1000 मेगावाट की पाकल दुल परियोजना निर्माणाधीन है, जिसमें अपेक्षाकृत बड़ा (भंडारणयुक्त) बांध प्रस्तावित है। इसके अतिरिक्त चिनाब बेसिन में सावलकोट, बर्सर आदि बड़ी परियोजनाओं की योजनाएँ भी कागज़ों पर हैं। हालाँकि संधि के तहत अभी तक भारत ने कोई विशाल बहुद्देशीय बांध (बहाव को दीर्घकाल तक रोकने वाला) पश्चिमी नदियों पर नहीं बनाया है।

संक्षेप में, वर्तमान में भारत के पास पश्चिमी नदियों पर जो भी परियोजनाएँ हैं, वे सभी “प्रवाह-आधारित” हैं। इनकी सीमित जल-भंडारण क्षमता का मतलब है कि भारत चाहकर भी लंबे समय के लिए पानी को रोक नहीं सकता। पानी को बिजली उत्पादन के लिए मोड़ा या कुछ समय के लिए रोका जा सकता है, पर अंतत: अधिकांश पानी पाकिस्तान की ओर छोड़ा जाना होता है। बड़े जलाशयों का अभाव भारत की तकनीकी सीमा है, जो संधि तोड़े बिना स्थायी जलरोक संभव नहीं होने देती। यही बिंदु भविष्य में संधि रद्द होने की स्थिति में अल्पावधि प्रभावों को निर्धारित करेगा। 

अल्पकालिक प्रभाव

संधि रद्द (या निलंबित) होने के तुरंत बाद के प्रभाव अलग-अलग स्तर पर महसूस होंगे – कुछ तत्काल, कुछ मनोवैज्ञानिक, तो कुछ प्रशासनिक। अल्पकाल में बुनियादी भौतिक वास्तविकताओं के कारण जल प्रवाह में बड़े बदलाव की संभावना कम है, लेकिन राजनीतिक व कूटनीतिक प्रभाव तुरंत उभर सकते हैं। यहाँ भारत और पाकिस्तान पर अल्पकालिक असर का पृथक विश्लेषण किया गया है:

भारत पर अल्पकालिक प्रभाव

संधि रद्द करते ही भारत के लिए सबसे पहला परिवर्तन यह होगा कि उसे अब संधि के तकनीकी बंधनों का पालन तत्काल रूप से करने की बाध्यता नहीं रहेगी। व्यावहारिक रूप से देखें तो शुरुआत में भारत के जल-प्रवाह प्रबंधन में कोई बड़ी तब्दीली संभव नहीं है क्योंकि वर्तमान परियोजनाओं में पर्याप्त जल-संग्रहण क्षमता नहीं है। पश्चिमी नदियों का पानी भूभाग के ढाल के अनुसार तेज़ी से बहता है और भारत के पास उसे रोकने को बड़े बांध मौजूद नहीं हैं। इसलिए अगले कुछ दिनों-हफ्तों में पाकिस्तान जाने वाले पानी की मात्रा लगभग पूर्ववत ही रहेगी। हाँ, भारत कुछ “नियंत्रित प्रवाह” को रोकना बंद कर सकता है – उदाहरणतः किशनगंगा या बगलिहार जैसी परियोजनाओं से पूर्व निर्धारित मौसम अनुसार पानी छोड़ने की जो सहमति थी, उसे तत्काल प्रभाव से रोक सकता है। भारतीय अधिकारियों के अनुसार संधि निलंबन के बाद भारत अब बाँधों/बैराजों से पानी छोड़े जाने संबंधी सूचनाएँ साझा करने या सूखे मौसम में न्यूनतम प्रवाह छोड़ने के लिए बाध्य नहीं होगा। इससे भारत को रणनीतिक लचीलेपन की अनुभूति होगी कि वह जरूरत पड़ने पर पानी छोड़ने/रोके रखने का निर्णय स्वयं ले सकता है।

हालांकि भौतिक जल परिदृश्य लगभग अपरिवर्तित रहेगा, भारत को राजनयिक व अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तुरंत प्रभावों का सामना करना पड़ेगा। एक पुरानी संधि को एकतरफा स्थगित करने पर वैश्विक समुदाय में चिंता उठेगी, क्योंकि इसे दुर्गम क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ाने वाला कदम माना जा सकता है। संभव है कि विश्व बैंक (जिसने मूल संधि कराई) या अमेरिका जैसे देश भारत से संयम बरतने की अपील करें। भारत को अपने रुख (आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई) को सही ठहराने के लिए सक्रिय कूटनीति करनी होगी। घरेलू स्तर पर, इस कदम का मिश्रित प्रभाव होगा – राजनीतिक रूप से भारत में कई हलकों में इसे पाकिस्तान पर दबाव बनाने वाले साहसी कदम की तरह सराहा जा सकता है, खासकर यह संदेश देकर कि “आतंकवाद और बातचीत/सहयोग साथ नहीं चल सकते”। किंतु सुरक्षा के लिहाज़ से सतर्कता बढ़ेगी, क्योंकि पानी के मसले पर तनाव कहीं सीमा पर टकराव का रूप न ले ले। भारतीय सशस्त्र बल और सीमा सुरक्षा बल उच्च सतर्कता पर आ सकते हैं, हालांकि अल्पावधि में प्रत्यक्ष संघर्ष की संभावना न्यून रहती है (क्योंकि वास्तविक जल आपूर्ति अभी बाधित नहीं हुई)।

संधि निलंबन के तुरंत बाद भारत प्रभाविता के कुछ संकेतक निम्नलिखित होंगे: पाकिस्तान के साथ स्थायी सिंधु आयोग की बैठकें रोक दी जाएंगी, डेटा का आदान-प्रदान बंद होगा, और पश्चिमी नदियों पर जारी भारतीय परियोजनाओं में पाकिस्तान को निरीक्षण की सुविधा नहीं दी जाएगी। इन कदमों से भारत के लिए तत्काल कोई आर्थिक लाभ या हानि नहीं होगी, परंतु यह स्पष्ट संकेत होगा कि भारत भविष्य में अपनी शर्तों पर ही सहयोग करेगा। कुल मिलाकर, अल्पकाल में भारत पर प्रत्यक्ष जल-आधारित प्रभाव कम और राजनयिक-राजनीतिक प्रभाव अधिक दिखेंगे।

पाकिस्तान पर अल्पकालिक प्रभाव

संधि रद्द होने की खबर भर से पाकिस्तान में चिंता और अनिश्चितता की लहर दौड़ जाएगी, भले ही पहले कुछ हफ्तों में नदियों के बहाव में कोई बड़ी कमी न आए। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा अत्यधिक हद तक सिंधु नदी प्रणाली के पानी पर निर्भर है – देश की 80% सिंचित कृषि भूमि इसी पर आधारित है। इसलिए संधि का खत्म होना एक अस्तित्व संबंधी संकट की आहट के रूप में देखा जाएगा। अल्पकाल में भारत द्वारा पानी की मात्रा उसी तरह जारी रहने की संभावना है, पर पाकिस्तान “जल-अभाव” के डर से तुरंत कदम उठाना शुरू कर सकता है। उदाहरण के लिए, कृषि विभाग किसानों को सलाह दे सकते हैं कि वे फसलों की बुवाई/रोपाई में सावधानी बरतें या वैकल्पिक स्रोत (ट्यूबवेल आदि) तैयार रखें। पाकिस्तान अपने बड़े बाँधों – मंगला (झेलम पर) और तरबेला (सिंधु पर) – में जलस्तर को यथासंभव भरने की कोशिश करेगा ताकि किसी आकस्मिक कटौती की सूरत में कुछ भंडार उपलब्ध रहे।

राजनयिक तौर पर, पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय हो जाएगा। संभव है कि वह संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय आदि में भारत के इस कदम को चुनौती दे या मध्यस्थता की गुहार लगाए। पाकिस्तान यह तर्क देगा कि भारत ने एक संधि का उल्लंघन किया है जो अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत पंजीकृत है। शुरूआती बयानों में ही पाकिस्तान ने भारत की कार्रवाई को “युद्ध जैसी कार्रवाई” कहा है और पूरी ताकत से जवाब देने की चेतावनी दी है। इससे साफ है कि सुरक्षा प्रतिष्ठान भी अल्पावधि में चौकन्ना हो जाएगा – भारतीय बांधों पर निगरानी, सीमावर्ती चौकियों पर मुस्तैदी इत्यादि बढ़ सकती है।

हालांकि पानी का बहाव तत्काल प्रभावित न होने से पाकिस्तान में शहरी जल आपूर्ति या बिजली उत्पादन पर तुरंत कोई असर अपेक्षित नहीं है, पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव व्यापक होंगे। पाकिस्तानी मीडिया और सिविल सोसायटी में यह बहस जोर पकड़ेगी कि देश को संभावित जल संकट से निपटने के लिए क्या आपात कदम उठाने चाहिए। सरकार पर दबाव बढ़ेगा कि वो चीन या इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) जैसे मित्र देशों का समर्थन हासिल करे। संभव है कि कुछ अल्पावधि उपाय अपनाए जाएँ जैसे: नहरों की समयपूर्व सफाई और मरम्मत ताकि उपलब्ध पानी की बर्बादी कम से कम हो; सिंचाई विभाग द्वारा सख्त मॉनीटरिंग; और कृषि वैज्ञानिकों द्वारा सूखा-रोधी फसलों के इस्तेमाल की सलाह। आर्थिक मोर्चे पर भी सतर्कता रहेगी – अगर किसानों को लगे कि पानी अनिश्चित है तो वे फसलों की बुआई कम कर सकते हैं, जिससे अनाज उत्पादन व बाजार प्रभावित हो सकता है।

सारांशतः, शुरुआती हफ्तों में पाकिस्तान पर भौतिक जलापूर्ति में बड़ा बदलाव शायद नहीं होगा, लेकिन अनिश्चितता का माहौल आर्थिक योजनाओं व राष्ट्रीय सुरक्षा सोच पर हावी रहेगा। सरकार को जनता व विपक्ष का दबाव झेलना होगा कि वह भारत से संधि-पुनर्स्थापन या अंतरराष्ट्रीय समाधान निकाले। कुल मिलाकर, अल्पकालिक प्रभाव पाकिस्तान के लिए मुख्यतः भय, कूटनीतिक सक्रियता और तैयारी के रूप में सामने आएगा, जबकि वास्तविक पानी की उपलब्धता निकट अवधि में लगभग पूर्ववत रहेगी।

दीर्घकालिक प्रभाव

यदि सिंधु जल संधि लम्बे समय तक निलंबित रहती है या स्थायी रूप से रद्द मानी जाती है, तो दोनों देशों के लिए दीर्घकालिक परिणाम बेहद गंभीर और बहुआयामी होंगे। इनमें जल संसाधन प्रबंधन, खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा, आंतरिक राजनैतिक स्थिरता, पर्यावरण और द्विपक्षीय संबंधों के पहलू शामिल हैं। दीर्घकालिक प्रभावों का विश्लेषण करते हुए ये समझना जरूरी है कि समय के साथ भौतिक अवस्थाएँ बदल सकती हैं – भारत नए बाँध बना सकता है, पाकिस्तान को कम पानी मिलने की आदत डालनी पड़ सकती है – और इसी से भविष्य का परिदृश्य निर्धारित होगा।

भारत पर दीर्घकालिक प्रभाव

संधि समाप्ति के दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में भारत के समक्ष एक द्विभाजित परिदृश्य होगा – एक तरफ अवसर कि वह अपने जल संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर सके, और दूसरी तरफ चुनौतियाँ कि कहीं यह मुद्दा गंभीर संघर्ष का कारण न बन जाए।

सबसे पहले अवसर की बात करें तो, भारत अब पश्चिमी नदियों पर बड़े बांधों और जलाशयों के निर्माण के लिए स्वतंत्र होगा। जो तकनीकी प्रतिबंध संधि ने लगाए थे (उदाहरण के लिए बांध की ऊँचाई, जलधारण क्षमता की सीमाएं), वे हट जाएंगे। भारत दीर्घावधि में बहु-उद्देशीय परियोजनाएँ (बिजली + सिंचाई + बाढ़ नियंत्रण) योजना बना सकता है। जैसे, चिनाब नदी पर प्रस्तावित बर्सर परियोजना को बड़ी जलधारण क्षमता के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, जिसे पहले संधि प्रावधानों के कारण सीमित रखा गया था। इसी प्रकार भारत किशनगंगा, रतले जैसी पनबिजली योजनाओं को पुनर्निर्देशित/पुनर्कल्पित कर अतिरिक्त जल संग्रहण क्षमता जोड़ने या प्रवाह को और नियंत्रित करने की दिशा में कदम उठा सकता है। बिजनेस टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार संधि निलंबन के बाद भारत किशनगंगा और रतले जैसी योजनाओं को तेज़ी से पूरा करने और इनके डिज़ाइन में परिवर्तन करने पर जोर देगा, जिससे अधिक पानी रोका जा सके – वे परिवर्तन जो पहले पाकिस्तान के विरोध के कारण रुके थे। इसके अलावा, भारत यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा कि पूर्वी नदियों (रावी, सतलुज, ब्यास) का एक भी अतिरिक्त बूंद पाकिस्तान न जाए। उज्ह बहुद्देशीय परियोजना, ब्यास पर लक्ष्मीपुरी आदि नहर परियोजनाएँ और यमुना में अधिक पानी ले जाने के लिंक नहर इत्यादि लंबे समय में बन सकती हैं। इन सबका लाभ भारत को पानी की उपलब्धता के रूप में मिलेगा – विशेषकर सूखे प्रवण क्षेत्र (जैसे दक्षिणी पंजाब, राजस्थान) या जम्मू-कश्मीर के कृषि क्षेत्रों को नया पानी मिल सकेगा। पानी से जुड़ा एक और लाभ होगा देश की ऊर्जा सुरक्षा। बड़े पनबिजली बांधों से हज़ारों मेगावाट सस्ती, स्वच्छ बिजली पैदा की जा सकती है जिससे थर्मल पावर पर निर्भरता कम होगी। ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि से उद्योगों को बल मिलेगा और ग्रिड स्थिरता बढ़ेगी।

इन लाभों के साथ-साथ कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियाँ और जोखिम भी हैं:
  • कूटनीतिक और कानूनी जोखिम: भारत का संधि को ख़त्म करना दीर्घकाल में अंतरराष्ट्रीय कानून के कुछ सिद्धांतों का उल्लंघन माना जा सकता है। यदि भविष्य में पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में जाता है, तो लंबे मुकदमे और दबाव की स्थिति बन सकती है। जल बंटवारे के अन्य अंतरराष्ट्रीय मामलों में ऐसे उदाहरण कम हैं जहाँ एक देश ने एकतरफा संधि तोड़ी हो, इसलिए भारत के कदम की मिसाल दूसरों के लिए चिंता का विषय होगी। इससे भारत को वैश्विक मंच पर कुछ आलोचना या अविश्वास का सामना करना पड़ सकता है।
  • सैन्य व रणनीतिक जोखिम: पानी पर पूर्ण नियंत्रण पाने की भारतीय कोशिशें पाकिस्तान को बेहद असुरक्षित करेंगी, जिससे युद्ध का ख़तरा दीर्घावधि में बढ़ सकता है। यदि भारत अपने बांधों द्वारा सूखे मौसम में पानी रोककर रखता है और पाकिस्तान की नदियाँ सूखने लगती हैं, तो पाकिस्तान अन्य रास्ते न मिलने पर सैन्य टकराव की ओर जा सकता है। विशेषकर जब पाकिस्तान इसे जीवन-मरण का प्रश्न समझेगा, तो सीमाओं पर स्थायी तनाव बना रहेगा। भारत को लगातार रक्षा तैयारियों पर बड़े खर्च करने पड़ सकते हैं।
  • आर्थिक व पर्यावरणीय चुनौतियाँ: बड़े बांध बनाना दीर्घकालिक प्रक्रिया है – एक विशाल परियोजना को पूरा होने में 10-15 साल तक लग सकते हैं और अरबों डॉलर खर्च होते हैं। भारत को इन परियोजनाओं के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने होंगे। यदि अंतरराष्ट्रीय विकास संस्थान (जैसे विश्व बैंक) राजनीतिक वजहों से धन देने से इंकार करें, तो भार पूरी तरह देश पर आएगा। बांधों के निर्माण में पर्यावरणीय प्रभाव (जैसे जंगलों का डूबना, पारिस्थितिकी परिवर्तन) और स्थानीय लोगों का पुनर्वास जैसी समस्याएँ भी आती हैं। कश्मीर और लद्दाख जैसे क्षेत्रों में नए बांध बनाने से स्थानीय विरोध या पारिस्थितिक चिंता उभर सकती है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि नए इंफ़्रास्ट्रक्चर से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को कम से कम किया जाए।
  • अंतर्निहित अनिश्चितता: एक अन्य पहलू है जलवायु परिवर्तन से बदलता प्रवाह का पैटर्न। हो सकता है भारत बड़े बांध बना ले, पर यदि ग्लेशियर पिघलने की दर और वर्षा-पैटर्न ऐसे हों कि कुल बहाव कम हो जाए या बेहद अनिश्चित हो जाए, तो योजनानुसार जल संग्रह नहीं हो पाएगा। उदाहरण के लिए, अगर सिंधु-चिनाब का प्रवाह भविष्य में घटता है तो बांध खाली रह सकते हैं और दोनों देशों को कम पानी मिलेगा। इसलिए भारत को दीर्घकाल में पानी के उपयोग की योजनाओं को अत्यधिक लचीलेपन के साथ बनाना होगा, ताकि वास्तविक प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुकूल वे स्वयं को ढाल सकें।

समग्र रूप से देखें तो दीर्घावधि में संधि-रहित परिस्थिति में भारत जल-शक्ति (Hydro-power) के दोहरे अर्थ में खुद को सुदृढ़ कर सकता है – (1) जल-विद्युत एवं सिंचाई क्षमता बढ़ा कर आर्थिक लाभ, और (2) रणनीतिक दबाव उपकरण के रूप में पानी का नियंत्रण। परंतु इन फायदों के साथ गंभीर जोखिम जुड़ेंगे कि कहीं यह नियंत्रण युद्ध का कारक न बन जाए या अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को अलग-थलग न कर दे। भारत को दीर्घकालिक संतुलन बनाना होगा – जल संसाधन का इस्तेमाल बढ़ाते हुए भी कूटनीतिक मोर्चे पर विश्वास बहाली के उपाय खोजना आवश्यक होगा, ताकि पूर्ण टकराव से बचा जा सके।

पाकिस्तान पर दीर्घकालिक प्रभाव

दीर्घकालिक दृष्टि से, सिंधु जल संधि का रद्द होना पाकिस्तान के लिए संभावित आपदा जैसे परिणाम ला सकता है। पाकिस्तान एक निचले प्रवाह वाला देश (लोअर रिपेरियन) है जिसकी अधिकांश नदियाँ भारत से होकर या भारत द्वारा नियंत्रित होकर आती हैं। दशकों से, पाकिस्तान की कृषि, पीने के पानी की व्यवस्था और पनबिजली उत्पादन इस भरोसे पर चले आ रहे थे कि सिंधु संधि के तहत भारत पानी रोकेगा नहीं। यदि यह भरोसा टूटता है और भारत समय के साथ पश्चिमी नदियों के प्रवाह में कटौती करता है, तो पाकिस्तान को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा:

  • जल उपलब्धता में स्थायी कमी: जैसे-जैसे भारत अपने बांधों की क्षमता बढ़ाएगा, पाकिस्तान को मिलने वाले कुल पानी में कमी आएगी। यह कमी साल भर में असमान रूप से प्रकट होगी – ख़ास तौर पर सूखे मौसम (जैसे सर्दियों) में जब नदियों में प्राकृतिक बहाव कम होता है, अगर भारत उस जल का एक हिस्सा भी रोक ले तो पाकिस्तान की नहरों और नदियों में पानी बेहद कम रह जाएगा। गर्मियों के मॉनसून में भले बाढ़ जैसी स्थिति में अतिरिक्त पानी फिर भी आ सकता है, पर शुष्क महीनों में पाकिस्तान सूखे से जूझेगा। पाकिस्तान के कुल वार्षिक जल संतुलन में गंभीर घाटा होगा। देश के भीतर उपलब्ध प्रतिव्यक्ति जल मात्रा (per capita water availability) जो पहले ही कम हो रही थी, और तेजी से गिरेगी, जल-संकट की स्थिति उत्पन्न होगी।
  • कृषि एवं खाद्य सुरक्षाः पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा हिस्सा है, और खेती प्रायः नहरी सिंचाई पर निर्भर है (बारिश कम होती है)। एक आकलन के मुताबिक देश की 80% सिंचित भूमि सिंधु नदी प्रणाली पर निर्भर करती है। यदि नदियों का पानी घटता है, तो खरीफ और रबी दोनों मौसम की प्रमुख फसलें प्रभावित होंगी। बिजनेस टुडे के विश्लेषण अनुसार पानी के व्यवधान से गेहूं, चावल, कपास जैसी मुख्य फसलों की पैदावार घट सकती है, जो पाकिस्तान की GDP और खाद्य सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सिंचाई पानी की कमी से न सिर्फ उत्पादन मात्रा गिरेगी, बल्कि ज़मीन का उपजाऊपन भी प्रभावित होगा – कम पानी मिलने से मिट्टी में लवणता (साल्ट) बढ़ती है, जिससे दीर्घावधि में बंजरता का खतरा होता है। एक अनुमान के मुताबिक पाकिस्तान की 43% खेती योग्य भूमि पहले से लवणीयकरण की समस्या झेल रही है, जो कम बहाव की स्थिति में और बिगड़ सकती है। खाद्य असुरक्षा बढ़ने से पाकिस्तान को महंगे अनाज आयात करने पड़ सकते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में भुखमरी/कुपोषण का संकट गहरा सकता है। यानि खाद्य निर्भरता व महँगाई दीर्घावधि में बढ़ेगी।
  • पनबिजली और ऊर्जा संकट: पाकिस्तान अपनी बिजली का बड़ा भाग पनबिजली से प्राप्त करता है, विशेषकर दो विशाल बांध – arbela (सिंधु पर) और Mangla (झेलम पर) – काफी बिजली उत्पन्न करते हैं। यदि इन बाँधों में आने वाला पानी कम हो गया, तो बिजली उत्पादन गिरेगा। अभी पाकिस्तान में लगभग 25-30% बिजली हाइड्रो से आती है। पानी की कमी से तर्बेला/मंगला में टर्बाइन पूरा लोड पर नहीं चल पाएंगे, जिससे देश को बिजली की कमी (लोडशेडिंग) का सामना करना पड़ेगा। पाकिस्तान पहले ही ऊर्जा संकटों से जूझता रहा है; दीर्घावधि में सिंधु जल कटौती इसका संकट और गहरा देगी। बिजली कमी का अर्थ उद्योगों का प्रभावित होना, नौकरियों का नुकसान और घरेलू स्तर पर अंधकार बढ़ना है। ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत (कोयला, गैस, आयातित बिजली) खोजना महँगा पड़ेगा और पाकिस्तान की कमजोर अर्थव्यवस्था पर और बोझ डालेगा।
  • भूजल पर दबाव: सतही पानी की कमी होने पर लोग और किसान भूजल (groundwater) का दोहन बढ़ाएंगे। पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांतों में पहले से ही ट्यूबवेल से बड़े पैमाने पर सिंचाई की जाती है। यदि नहरों में पानी कम हुआ, तो और नलकूप खोदे जाएंगे। इससे भूजल स्तर नीचे जाता जाएगा तथा कुओं का पानी खारा होता जाएगा। यह एक दुष्चक्र होगा – कम सतही जल, अधिक भूजल खींचना, जिससे आने वाले वर्षों में भूजल भी अप्राप्त या अनुपयोगी होता जाएगा। लाहौर, कराची जैसे महानगरों की जलापूर्ति भी भूजल पर है; दीर्घावधि में ये शहर भारी जल संकट झेल सकते हैं।
  • आर्थिक एवं सामाजिक अस्थिरता: पानी की कमी सीधे तौर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका देगी। पैदावार घटने से किसान की आय गिरेगी, ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ेगी और गाँवों से शहरों की ओर पलायन तेज़ होगा। शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ने से वहां भी बुनियादी सेवाओं का संकट उत्पन्न होगा। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट से बैंकिंग सेक्टर पर भी असर पड़ सकता है (कर्ज चुकौती में कमी) और कुल मिलाकर GDP ग्रोथ मंद पड़ सकती है। पानी को लेकर देश के भीतर भी प्रांतीय तनाव विकराल रूप ले सकते हैं। पहले भी सूखे वर्षों में सिंध और पंजाब प्रांत के बीच पानी-बंटवारे पर विवाद हुआ है; यदि कुल उपलब्धता कम होती है तो एक-दूसरे पर पानी चुराने या ज्यादा उपयोग करने के आरोप बढ़ेंगे। 1991 के अंतर-प्रांतीय जल समझौते को लागू कराना बड़ी चुनौती बन जाएगा। बलूचिस्तान और ख़ैबर-पख्तूनख्वा भी अपने हिस्से के पानी की लड़ाई लड़ सकते हैं। इस तरह आंतरिक राजनीति में अस्थिरता और कलह दीर्घावधि में बढ़ सकती है, जो पाकिस्तान की संघीय एकता के लिए ठीक नहीं होगी।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: पानी के प्रवाह में बदलाव से पाकिस्तान के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होंगे। सिंधु नदी का डेल्टा (सागर के पास का क्षेत्र) पहले ही अपस्ट्रीम बाँधों के कारण कम पानी और अवसाद (sediments) मिलने से क्षरित हो रहा है। समुद्री पानी भीतर घुसकर खेती योग्य भूमि को बंजर कर रहा है। यदि और कम freshwater पहुंचेगा, तो सिंध का तटीय इलाक़ा तेज़ी से समुद्र में समाएगा और वहाँ के गाँव-खेती लुप्त हो सकते हैं। नदी में पानी कम रहने से नदी की साफ़ होती क्षमता कम होगी और प्रदूषक तत्व जमा होंगे, मछलियाँ व जैव-विविधता घटेगी। कुल मिलाकर पर्यावरण पर एक नकारात्मक असर लंबे समय में दिखेगा, जो मनुष्य और वन्यजीव दोनों को संकट में डालेगा।
  • कूटनीतिक व भू-राजनीतिक विकल्प: पानी की गंभीर कमी से जूझते पाकिस्तान के पास कुछ भू-राजनीतिक विकल्प विचार में आएंगे। वह चीन के साथ मिलकर किसी वैकल्पिक उपाय (जैसे ऊपरी सिंधु जो तिब्बत में है, वहां संयुक्त परियोजना) पर विचार कर सकता है। चीन पहले ही पाकिस्तान में दियामेर-भाशा बांध में सहयोग कर रहा है; संभव है पाकिस्तान और बांध बनाने की कोशिश करे (जैसे कालाबाग बांध, जिसपर आंतरिक विरोध रहा है) ताकि अपने हिस्से का अधिकतम पानी संरक्षित करे। अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान भारत को दबाव में लाने के लिए हरसंभव रणनीति अपनाएगा – OIC में समर्थन, मानवाधिकार के मुद्दे बनाना कि भारत पानी से “न्याय से वंचित” कर रहा है, आदि। दीर्घकाल में, पानी का मुद्दा भारत-विरोधी आतंकवादी समूहों को भी एक नया नैरेटिव दे सकता है कि “भारत ने पानी छीना”, जिससे दुर्भाग्यवश उग्रवाद को हवा मिल सकती है। यानि सुरक्षा पर गिरावट के साथ-साथ पाकिस्तान को विदेश नीति में भी नए समीकरण बनाने पड़ेंगे।

निष्कर्षतः, बिना संधि के अगले 10-20 सालों में पाकिस्तान का जल-भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है यदि भारत अपने ऊपरी प्रवाह के लाभों को पूर्णतया प्रयोग में लाता है। पाकिस्तान के पास कुछ आंतरिक सुधार के रास्ते हैं – जैसे सिंचाई प्रणाली की दक्षता बढ़ाना (नहरों की लाइनिंग, ड्रिप इरिगेशन), फसल पैटर्न बदलना (ज्वार-बाजरा उगाना जहाँ पानी कम चाहिए) – पर इनसे कमी की भरपाई पूरी तरह संभव नहीं होगी। दीर्घावधि में पाकिस्तान को पानी की कमी के अनुकूल खुद को ढालना पड़ेगा, लेकिन यह प्रक्रिया आर्थिक एवं सामाजिक ताने-बाने को तनावपूर्ण बनाकर ही होगी। एक पानी के लिए संघर्ष (Water War) की स्थिति भी बन सकती है यदि हालात चरम पर पहुंचें। यही कारण है कि सिंधु जल संधि को बचाए रखना अब तक दोनों देशों के हित में माना गया था; इसके हटने पर पाकिस्तान की चुनौतियाँ असाधारण रूप से बढ़ जाएंगी।

तुलनात्मक सारणी: संधि समाप्ति के प्रभाव (भारत बनाम पाकिस्तान)

नीचे एक सारणी में संधि रद्द होने की स्थिति में भारत और पाकिस्तान पर प्रमुख संभावित प्रभावों की तुलना की गई है, जिसे अल्पकालिक और दीर्घकालिक पहलुओं सहित व्यवस्थित किया गया है:

पहलू

भारत पर प्रभाव

पाकिस्तान पर प्रभाव

जल प्रवाह (तात्कालिक)

लगभग स्थिर: भारत के पास जल रोकने हेतु बड़े बाँध नहीं, इसलिए प्रारंभिक दौर में पाकिस्तान जाने वाले प्रवाह में नगण्य बदलाव अपेक्षित।

लगभग स्थिर: प्रारंभिक दिनों में नदियों में करीब-करीब सामान्य जलधारा, पर भविष्य को लेकर बड़ी अनिश्चितता व चिंता का माहौल पैदा होगा।

प्रवाह प्रबंधन (तात्कालिक)

भारत अब सूचनाएँ साझा करने या न्यूनतम बहाव छोड़ने को बाध्य नहीं; आवश्यक होने पर बाँधों से पानी रोकने/छोड़ने का लचीलापन।

भारत से बाढ़ या सूखे की पूर्वसूचना मिलनी बंद होगी; आकस्मिक पानी छोड़े जाने पर अचानक बाढ़ का ख़तरा बढ़ेगा, जबकि बिना सूचना के पानी रोके जाने पर सिंचाई योजनाएँ प्रभावित।

कृषि व पेयजल (अल्पकालिक)

तत्काल प्रभाव नगण्य – भारत की ज्यादातर कृषि गंगा तथा अन्य आंतरिक नदियों पर निर्भर; पश्चिमी नदियों के पानी की अभी सीमित भूमिका है।

हल्की चिंता शुरू – रबी/खरीफ़ की योजनाओं में संशय; किसान संभावित कमी की भरपाई हेतु ट्यूबवेल आदि चालू रखेंगे। शहरों में भी पानी बचाने की अपील संभव।

ऊर्जा उत्पादन (अल्पकालिक)

कोई खास परिवर्तन नहीं – भारतीय पावर ग्रिड को पश्चिमी नदी परियोजनाओं से मिलने वाली बिजली पूर्ववत जारी। रन-ऑफ़-रिवर संयंत्र चालू रहेंगे।

तत्काल असर नहीं – मंगला/तARBela बांध अपने वर्तमान भंडार से बिजली बना पाएंगे। पर भारत द्वारा अचानक पानी रोकने की आशंका से ग्रिड प्रबंधन चिंतित रहेगा।

राजनयिक प्रतिक्रिया

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना और दबाव का सामना; भारत को अपने कदम को आतंकवाद-रोधी आवश्यक कदम के रूप में बचाव करना होगा।

वैश्विक मंच पर गुहार – पाकिस्तान भारत को संधि-तोड़क दिखाते हुए विश्व बैंक, UN आदि से हस्तक्षेप की मांग करेगा। मित्र देशों से समर्थन तलाशीगा।

सुरक्षा स्थिति (तात्कालिक)

सीमाओं पर सतर्कता बढ़ेगी; सैन्य तैयारियां तेज़ पर खुला टकराव नहीं क्योंकि प्रवाह तत्काल नहीं रुका है।

भारत के कदम को ‘युद्ध की कार्रवाई’ बताते हुए सेना हाई अलर्ट पर। दोनों ओर तनाव व आशंका, हालांकि तुरंत युद्ध की संभावना कम।

जल नियंत्रण (दीर्घकालिक)

विकल्प व लाभ: भारत बड़ी परियोजनाएँ (बांध/नहर) बनाकर सिंधु, झेलम, चिनाब के जल का ज़्यादा हिस्सेदारी उपयोग कर सकेगा। पानी की घरेलू मांगों (सिंचाई, पीने, उद्योग) को पूरा करने का मौका। बाढ़ नियंत्रण के लिए भी बांध उपयोगी।

कमी व संकट: पश्चिमी नदियों के कम बहाव से स्थायी जलघाटे का सामना। विशेषकर सूखे मौसम में नदी निचले स्तर पर, सिंचाई हेतु नहरें सूखी। देश में प्रतिव्यक्ति जल उपलब्धता खतरनाक हद तक घट सकती है – जल-संकट स्थायी रूप लेगा।

कृषि व खाद्य सुरक्षा (दीर्घकालिक)

सीमित सकारात्मक: अतिरिक्त पानी से जम्मू-कश्मीर, पंजाब के सीमांत क्षेत्रों में नई ज़मीन सिंचित हो सकती है। कुछ फसलों के लिए पानी की उपलब्धता बढ़कर उत्पादन में मामूली वृद्धि संभव।

गंभीर नकारात्मक: सिंचित क्षेत्र सिकुड़ेंगे; प्रमुख फ़सलों की पैदावार घटेगी। अनाज व कपास उत्पादन में गिरावट से GDP पर बुरा असर, खाद्य पदार्थ आयात पर निर्भरता और महँगाई बढ़ेगी। ग्रामीण आजीविका खतरे में।

पनबिजली व ऊर्जा (दीर्घकालिक)

विस्तार: नए बड़े बांध जो संधि में वर्जित थे स्थापित होकर हज़ारों MW पनबिजली उत्पादन करेंगे। इससे बिजली सस्ती होगी, कोयला आयात कम किया जा सकेगा, एवं ऊर्जा आत्मनिर्भरता बढ़ेगी।

संकुचन: कम पानी से तर्बेला, मंगला जैसे बांधों की बिजली उत्पादन क्षमता घटेगी। नतीजन बिजली कटौती (लोडशेडिंग) बढ़ेगी। औद्योगिक उत्पादन व घरेलू सप्लाई प्रभावित, वैकल्पिक मंहगे ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ेगी।

आंतरिक राजनीति व समाज (दीर्घकालिक)

स्थानीय असर: बांध निर्माण से कुछ आबादी का पुनर्वास करना पड़ेगा; पर्यावरणीय प्रभाव (जंगल डूबना आदि) का प्रबंधन चुनौती होगा। लेकिन लंबे वक्त में उत्तरी भारत के सूखे प्रवण इलाकों को पानी मिलने से सामाजिक-आर्थिक लाभ (खेती, रोजगार) हो सकते हैं।

अस्थिरता का खतरा: पानी की कमी से प्रांतों में झगड़े तीव्र; सिंध बनाम पंजाब पानी विवाद बढ़ सकता है। ग्रामीण बेरोज़गारी व पलायन शहरों की तरफ तेज़, जिससे शहरी अव्यवस्था बढ़ेगी। पानी के लिए जनता में असंतोष सरकार पर दबाव डालकर आंतरिक सुरक्षा को चुनौती देगा।

भू-राजनीति

दक्षिण एशिया में भारत की रणनीतिक स्थिति मजबूत – पाकिस्तान पर एक दबाव का उपाय हाथ में। किंतु संबंधों में स्थायी अविश्वास गहरा जाएगा, जिससे किसी भी वार्ता या सहयोग की संभावना कमज़ोर पड़ेगी।

पड़ोसी देशों व शक्तियों से समर्थन की कोशिश – चीन के साथ और नज़दीकी (संभावित संयुक्त जल परियोजनाएँ) या दूसरों से मध्यस्थता की अपेक्षा। दक्षिण एशिया में पानी का मुद्दा संघर्ष का स्थायी कारक बनकर क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित करेगा।

नोट: उपरोक्त तालिका में उल्लिखित प्रभाव परिप्रेक्ष्य स्वरूप हैं और वास्तविक परिणाम परिस्थितियों की तीव्रता, अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप, एवं दोनों पक्षों की नीतियों पर निर्भर करेंगे। फिर भी, समग्र रुझान इंगित करते हैं कि दीर्घकालिक परिदृश्य में भारत को कुछ रणनीतिक/आर्थिक बढ़त मिल सकती है, जबकि पाकिस्तान को बहुस्तरीय चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

निष्कर्ष

सिंधु जल संधि का रद्द होना दक्षिण एशिया में जल-जोड़ित संतुलन को बुनियादी रूप से बदल देगा। लगभग 65 वर्षों तक यह संधि दोनों देशों के बीच “विश्वास की एक डोरी” बनी रही, जिसने युद्धों और राजनीतिक तनाव के बावजूद जल के बंटवारे को एक हद तक निर्विघ्न रखा। आज के हालात – जिनमें सीमा-पार आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, और बढ़ती जनसंख्या की जल मांग शामिल है – ने इस संधि पर पुनर्विचार की स्थिति ला दी है। भारत ने हाल के वर्षों में दिखाया है कि वह अपनी “जल-राजनय” (Water Diplomacy) को अपनी सुरक्षा चिंताओं के साथ जोड़ने को तैयार है, जिसका उदाहरण संधि का निलंबन है। पाकिस्तान के लिए पानी जिंदगी और मौत का प्रश्न है, और वह इसे अपनी राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखता है। ऐसे में, यदि संधि पूर्णतः रद्द होती है, तो अल्पावधि में दोनों पक्षों के बीच अविश्वास एवं तनाव चरम पर रहेगा, हालाँकि शारीरिक रूप से पानी का बहाव तत्काल नहीं थमेगा। दीर्घावधि में तस्वीर पाकिस्तान के लिए कहीं अधिक कठिन प्रतीत होती है – उसे अपने खेतों, शहरों और बांधों के लिए वैकल्पिक योजना बनानी पड़ेगी या अंतरराष्ट्रीय मदद तलाशनी पड़ेगी, क्योंकि ऊपर से आने वाले पानी पर उसका बस नहीं रहेगा। उधर, भारत के सामने अवसर होगा कि वह अपने अधिकार का पानी रोके और उपयोग में लाए, लेकिन यह अवसर तभी फलदायी है जब वह इसका संतुलित लाभ उठा सके, बिना ऐसे बिंदु तक जाए जहाँ पानी पर संघर्ष सैन्य रूप धर ले।

आखिर में, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दो परमाणु-संपन्न पड़ोसी देशों के बीच पानी का विवाद किसी के हित में नहीं है। संधि को पूरी तरह ख़ारिज करना अंतिम उपाय होना चाहिए। बेहतरी इसी में है कि दोनों देश समय के साथ संधि में आवश्यक सुधार या पुनर्समझौता करें – जैसे तकनीकी विवाद निपटाने की समय-सीमा तय हो, जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में लचीले प्रावधान जोड़ें, और पारदर्शिता बढ़ाएं। यदि फिर भी हालात संधि-रद्दीकरण तक जाते हैं, तो उसके परिणाम सिर्फ भारत-पाकिस्तान तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि यह कदम अंतरराष्ट्रीय पटल पर जल सहयोग बनाम जल विवाद की बहस को प्रभावित करेगा। संक्षेप में, संधि का रद्द होना एक द्विधारी तलवार की तरह है: भारत के लिए एक ओर नए विकल्प खोलेगा तो दूसरी ओर गंभीर भू-राजनीतिक जोखिम लाएगा; पाकिस्तान के लिए यह जल संकट को जन्म देगा और उसे अस्तित्व की कठिन परीक्षा में डाल देगा। दोनों देशों को समझना होगा कि स्थायी समाधान टकराव नहीं बल्कि सहयोग और संयम में निहित है – चाहे वह मौजूदा संधि के भीतर हो या किसी नए समझौते के तहत।

  

 

स्रोत – टाइम्स ऑफ इंडिया

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