महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद |
चर्चा में क्यों :-
- महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद फिर से उभर आया है, जब बेलगावी में एक कर्नाटक बस कंडक्टर पर कथित रूप से हमला हुआ, क्योंकि उसने मराठी में बात नहीं की।
UPSC पाठ्यक्रम: प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन II: संघीय ढांचे से संबंधित मुद्दे और चुनौतियाँ |
परिचय
- महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद एक लंबे समय से चला आ रहा मुद्दा है ,यह विवाद राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 में निहित है, जिसने भाषाई आधार पर राज्य की सीमाओं को पुनर्गठित किया।
- महाराष्ट्र का दावा है कि 865 गाँव (बेलगावी, निपानी और कारवार सहित) महाराष्ट्र का हिस्सा होने चाहिए, जबकि कर्नाटक इस दावे को दृढ़ता से खारिज करता है।
विवाद की उत्पत्ति
- 1956: राज्य पुनर्गठन अधिनियम के कारण भाषाई जनसांख्यिकी के आधार पर राज्य की सीमाओं का फिर से निर्धारण हुआ।
- 1960: महाराष्ट्र का गठन हुआ और उसने कर्नाटक के मराठी भाषी गाँवों को शामिल करने की माँग की।
- कर्नाटक ने बेलगावी को अपने राज्य का हिस्सा बनाए रखा और इसे अपने प्रशासनिक ढांचे में शामिल कर लिया।
- पिछले कुछ वर्षों में, यह विवाद विभिन्न राजनीतिक, कानूनी और सामाजिक मंचों पर उठाया गया है।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 और महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद
- इस अधिनियम का उद्देश्य राज्यों का पुनर्गठन करके भाषाई और सांस्कृतिक मतभेदों को हल करना था।
- महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद इस बात पर प्रकाश डालता है कि पुनर्गठन ने सभी मुद्दों को पूरी तरह से हल नहीं किया।
- महाराष्ट्र का तर्क: मराठी भाषी गांवों को महाराष्ट्र में मिला दिया जाना चाहिए।
- कर्नाटक का तर्क: भाषाई पुनर्गठन वैध था, और इसमें किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं है।
महाजन आयोग (1966)
- 25 अक्टूबर, 1966: महाराष्ट्र के आग्रह पर केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति मेहर चंद महाजन (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) की अध्यक्षता में महाजन आयोग का गठन किया।
सिफारिशें:
- महाराष्ट्र के 247 गांवों को कर्नाटक में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
- कर्नाटक के 264 गांव महाराष्ट्र को दिए जाने चाहिए।
- महाराष्ट्र ने रिपोर्ट को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह कर्नाटक के पक्ष में है।
कानूनी और राजनीतिक घटनाक्रम
- 2004: महाराष्ट्र ने विवादित गांवों पर दावा करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
- 2010: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश किया, जिसमें कहा गया कि राज्य पुनर्गठन सही तरीके से किया गया था।
- कर्नाटक ने बेलगाम का नाम बदलकर बेलगावी कर दिया और इसे अपने शीतकालीन विधान सत्र के लिए स्थायी स्थल बना दिया, जिससे उसका दावा मजबूत हुआ।
2022 में विवाद का फिर से उठना
महाराष्ट्र की कार्रवाई:
- तत्कालीन मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कर्नाटक में मराठी भाषी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पेंशन और स्वास्थ्य सेवा लाभ की घोषणा की।
कर्नाटक की प्रतिक्रिया:
- सीएम बसवराज बोम्मई ने महाराष्ट्र में कन्नड़ स्कूलों के लिए अनुदान की घोषणा की और सांगली जिले और सोलापुर के कुछ हिस्सों में 40 गांवों पर दावा करने की मंशा जताई।
महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद क्यों?
- कानूनी अनिश्चितता: मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
- राजनीतिक उद्देश्य: राजनीतिक दल चुनावी लाभ के लिए विवाद का उपयोग करते हैं।
- सांस्कृतिक और भाषाई पहचान: मराठी और कन्नड़ भाषी समुदाय अपनी पहचान पर दृढ़ता से जोर देते हैं।
- सरकारी रणनीतियाँ: दोनों राज्य नीतिगत निर्णयों (जैसे, शहरों का नाम बदलना, प्रशासनिक केंद्रों को स्थानांतरित करना) के माध्यम से अपने दावों को मजबूत करते हैं।
क्षेत्रीय विकास और शासन पर प्रभाव
- बुनियादी ढांचे का विकास प्रभावित होता है: विवादित क्षेत्रों में परियोजनाओं में देरी होती है।
- प्रशासनिक चुनौतियाँ: सीमावर्ती क्षेत्रों में शासन संबंधी जटिलताएँ।
- आर्थिक और व्यापार व्यवधान: अंतरराज्यीय व्यापार और परिवहन प्रभावित होते हैं।
- सामाजिक और राजनीतिक तनाव: सीमावर्ती क्षेत्रों में सांप्रदायिक विभाजन और अशांति में वृद्धि।
सीमा विवादों के संदर्भ में भारत में संघवाद और क्षेत्रवाद
- भारत का संघीय ढांचा राज्यों को स्वायत्तता देता है, लेकिन सीमा विवाद संघ की एकता को चुनौती देते हैं।
क्षेत्रवाद बनाम संघवाद:
- अत्यधिक क्षेत्रीय अभिमान राष्ट्रीय एकता को बाधित कर सकता है।
- केंद्र सरकार को संघीय अधिकारों में संतुलन बनाना चाहिए और विवादों को सुलझाना चाहिए।
विवाद के संभावित समाधान
- संवैधानिक समाधान: फैसला आने के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करें।
- राजनीतिक संवाद: दोनों राज्य सरकारों के बीच रचनात्मक बातचीत।
- जनमत संग्रह: प्रभावित क्षेत्रों से राय लें।
- सांस्कृतिक एकीकरण: तनाव कम करने के लिए कन्नड़-मराठी सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दें।
भारत में राज्यों के पुनर्गठन का इतिहास
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956
- पृष्ठभूमि: स्वतंत्रता के बाद, भाषाई और सांस्कृतिक विचारों ने राज्य पुनर्गठन की माँग को जन्म दिया।
- राज्य पुनर्गठन आयोग (1953): फजल अली की अध्यक्षता में, आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।
- परिणाम: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 पारित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों का निर्माण हुआ।
- सरकारिया आयोग (1983): केंद्र-राज्य संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया और राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।
- पूंछी आयोग (2007): समकालीन मुद्दों को संबोधित करते हुए सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर फिर से विचार किया।
राज्यों के पुनर्गठन से जुड़ी चिंताएँ
प्रशासनिक और वित्तीय चुनौतियाँ
- परिसंपत्तियों, देनदारियों और संसाधनों का न्यायसंगत विभाजन एक जटिल मुद्दा बना हुआ है।
- नए राज्यों को स्थिर अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढाँचा स्थापित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ
- राष्ट्रीय एकीकरण के साथ क्षेत्रीय पहचान को संतुलित करना महत्वपूर्ण है।
- संसाधनों और प्रशासनिक सीमाओं पर विवाद राज्यों के बीच संबंधों को खराब कर सकते हैं।
शासन और विकास
- छोटे राज्यों को अधिक केंद्रित और कुशल शासन से लाभ हो सकता है।
- क्षेत्रीय असंतुलन को संबोधित करना और उपेक्षित क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देना।
भारत में नए राज्यों के निर्माण की मांगे
- विदर्भ (महाराष्ट्र): आर्थिक और विकासात्मक उपेक्षा पर आधारित माँग।
- गोरखालैंड (पश्चिम बंगाल): जातीय और सांस्कृतिक पहचान एक अलग राज्य की माँग को बढ़ावा देती है।
- बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश): क्षेत्रीय पिछड़ापन और अविकसितता प्राथमिक कारण हैं।
राज्य की माँग के पीछे कारण
- सांस्कृतिक पहचान: भाषाई और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण।
- आर्थिक विकास: क्षेत्रीय असमानताओं को संबोधित करना और संतुलित विकास को बढ़ावा देना।
- प्रशासनिक दक्षता: छोटे राज्य संभावित रूप से बेहतर शासन और प्रशासनिक दक्षता प्रदान कर सकते हैं।
नए राज्यों के निर्माण के लाभ
सुधारित शासन
- केंद्रित प्रशासन: छोटे राज्य विशिष्ट क्षेत्रीय मुद्दों और शासन आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
- उत्तरदायी सरकार: सरकार से निकटता अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह प्रशासन की ओर ले जा सकती है।
संतुलित विकास
- क्षेत्रीय विकास: नए राज्य क्षेत्रीय विकास और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को प्राथमिकता दे सकते हैं।
- संसाधन आवंटन: संसाधनों का समान वितरण विकासात्मक असंतुलन को दूर कर सकता है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व
- बढ़ाया प्रतिनिधित्व: छोटे राज्य राजनीतिक प्रक्रिया में क्षेत्रीय हितों का बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकते हैं।
- स्थानीय नेतृत्व: स्थानीय नेतृत्व को सशक्त बनाने से जमीनी स्तर पर विकास को बढ़ावा मिल सकता है।
सामाजिक सामंजस्य
- सांस्कृतिक संरक्षण: नए राज्य अद्वितीय सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को बढ़ावा दे सकते हैं और संरक्षित कर सकते हैं।
- सामाजिक सद्भाव: क्षेत्रीय शिकायतों को संबोधित करने से सामाजिक सद्भाव और एकीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।
निष्कर्ष
- महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद अभी भी अनसुलझा है और वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
- दीर्घकालिक शांति और क्षेत्रीय सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए एक संवैधानिक, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम (States Reorganization Act) के पारित होने के बाद उत्पन्न हुआ।
- महाराष्ट्र सरकार ने बेलगावी (Belgaum) और उसके आसपास के मराठी-भाषी क्षेत्रों को अपने राज्य में शामिल करने की माँग की है।
- इस विवाद को सुलझाने के लिए 1966 में महाजन आयोग (Mahajan Commission) का गठन किया गया था, जिसने विवादित क्षेत्रों को महाराष्ट्र में शामिल करने की सिफारिश की थी।
उपरोक्त में से कौन सा कथन सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3